Shabnami fiza (शबनमी फिज़ा)
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लोग ऐसे भी मोहब्बत का सिला देते हैँ
बनके संगदिल चाहत को भुला देते हैँ,
राहे जीस्त मेँ यह मंज़र भी हमने देखा
उजाले के लिए लोग घरोँ को जला देते हैँ,
सियासत का ज़माने मेँ यह खेल पुराना है
लोग मस्जिद तो कभी मंदिर को गिरा देते हैँ,
उठता है जिनकी लौ से धृआं नफरतोँ का
हम अदाबत के उन चिरागोँ को बुझा देते हैँ,
मेँरे हिन्द की जहाँ मेँ हर बात निराली है
हक़ पे यहां लोग सरोँ को कटा देते हैँ,
होती हैँ तामीर जिनपे तअस्सुब की इमारतेँ
चलो ज़हन मेँ उठती उन दीवारोँ को गिरा देते हैँ,
ताकि हर सिम्त हो जहाँ मेँ मोहब्बत की रौशनी
आओ उल्फ़त की’आबिद’हम शम्मोँ को जला देते हैँ!
(आबिद अली मंसूरी)
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