Shabnami fiza (शबनमी फिज़ा)
- 5 Posts
- 6 Comments
बनके संगदिल चाहत को भुला देते हैँ
लोग ऐसे भी मोहब्बत का सिला देते हैँ,
राहे जीस्त मेँ यह मंज़र भी हमने देखा
उजाले के लिए लोग घरोँ को जला देते हैँ,
सियासत का ज़माने मेँ यह खेल पुराना है
लोग मस्जिद तो कभी मन्दिर को गिरा देते हैँ,
उठता है जिनकी लौ से धुआँ नफ़रतोँ का
हम तअस्सुब के उन चिरागों को बुझा देते हैँ,
मेरे हिन्द की जहाँ मेँ हर बात निराली है
हक़ पे यहां लोग सरोँ को कटा देते हैँ,
होती हैँ तामीर जिनपे अदावत की इमारतेँ
चलो ज़हन मेँ उठती उन दीवारोँ को गिरा देते हैँ,
ताकि हर सिम्त हो जहाँ मेँ मोहब्बत की रौशनी
आओ उल्फ़त की ‘आबिद’ हम शम्मोँ को जला देते हैँ!
(आबिद अली मंसूरी)
–
पूर्व प्रकाशित-
https://www.jagran.com/blogs/abidalimansoori/2012/10/25/10/
Read Comments